सुबह आंख खुली तो अनायास ही नजर खिड़की के रास्ते आसमान की तरफ चली गई। दिन चढ़ आया था। आसमान बिल्कुल कोरा था। कहीं से कोई आवाज भी नहीं आ रही थी। बकाट्टा (वो काटा)। अनायास याद आ गया, मैं तो गाजियाबाद में हूं। मन मेरा छतहार में घूम रहा था। जी हां, विसुआ है। छतहार और पास के इलाकों में मनाया जाने वाला लोकपर्व। हर साल ये पर्व १४ अप्रैल को मनाया जाता है। विसुआ की शुरुआत कैसी हुई, इसकी मान्यता क्या है, इसका तो पता नहीं लेकिन इतना जरूर पता है कि बचपन से लेकर जवानी तक जब तक गांव में रहा होली बीतते ही हम बिसुआ का इंतजार करने लगते थे। हमारे लिए विसुआ ही वो मौका होता था जब हम पतंग उड़ाते थे। जी हां, वाराणसी में लोग मकर संक्रांति के दिन पतंग उड़ाते हैं तो दिल्ली में स्वतंत्रता दिवस के दिन। लेकिन छतहार में विसुआ पर पतंग उड़ाने की प्रथा है।
यूं तो विसुआ के महीनाभर पहले ही छतहार का आसमान रंगबिरंगी पतंगों से ढंक जाता था, लेकिन पतंगबाजी के शौकीनों के लिए विसुआ फाइनल मैच की तरह आता। हम इसके लिए खास तैयारियां किया करते थे। एक महिना पहले से ही गुड्डी (पतंग) उड़ाना शुरू कर देते थे। मांझा बनाया जाता था। इसके लिए शीशा कूटना फिर मैदा, आरारोट आदि के गर्म मिश्रण में मिलाना होता था। फिर मांझा चढ़ाने का काम शुरू होता था। इसमें चार लोगों की जरूरत पड़ती थी। एक धागा लपेटने के लिए, एक ढील देने के लिए, एक लप्पो और एक चुटकी देने के लिए।
पतंग के कई प्रकार होते थे। अगर पतंग के नीचे कपड़े की डोर लगा दी जाती तो वो पुच्छड़ कहलाता था। बगैर पुच्छड़ वाला पतंग लखनउवा कहलाता। इसके अलावा रंग और डिजाइन के आधार पर भी इसके अलग-अलग नाम थे। अधकपारी, डंटेर, कबूतरी, आंखमार।
छतहार में अन्य जगहों की तुलना में गु्ड्डी उड़ाने का तरीका उल्टा है। जहां दूसरी जगहों पर हाथ से डोर को खींच कर पतंग उड़ाया जाता है, वहीं छतहार में लटेर का यूज करते हैं और पेंच लगाने में ढील दिया जाता है। इसलिए वहां गुड्डी दूर तक जाती है। एक बार मेरे और सोनू के पतंग के बीच पेंच लग गया।काफी देर तक चलता रहा। इसे देखने के चक्कर में सौरभ छत से नीचे गिर गया था।
बिसुआ की एक और परंपरा है। इस दिन किसी के यहां पका खाना नहीं बनता। लोग इस दिन सत्तू खाते हैं। रात में चावल-दाल आदि बनता है। यही चावल दूसरे रोज बसियौड़ा (बासी) के रूप में खाते हैं। दूसरा दिन सिरूआ के रूप में मनाया जाता है। बचपन के उन दिनों की बात ही कुछ और थी। कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन। बिसुआ की हार्दिक शुभकामनाएं।
aapka lekh padhkar wo purani yaaden taza ho gai. jindgi ki raftaar me aage badhte hue hum khud bakkata ho gaye hai apni purani yaadon se.
ReplyDeleteapki yaden padhkar maja aa gaya, ek sath sattu, tikola, guddi sab aankh ke samne nachne lage. ghar se dur rahne par wahan ki har bat yaad aati hai. bisua ki hardik badhai.
ReplyDeleteबिसुआ,बैसाखी या सतुआन कहे ......इन पर्वो की महत्ता हमारे जीवन
ReplyDeleteमें बनी रहेगी क्यूकि ये हमारे जीवन का अभिन्न अंग है.ये पर्व हमे अपना
बचपन याद दिला देते है जिसे हम कंही पीछे छोड़ आये है ........
मुझे आज भी याद है बनारस में मकर संक्रांति के दिन मै पतंग
उड़ाने के लिए कितनी उत्साहित होती थी ........
हमे इन पर्वो को अपनी अगली पीढ़ी को बताना होगा ताकि
वे भी इसका आनंद ले सके ......
अच्छी प्रस्तुति है .............
After reading this, i was in flashback of my memory.., i remember that how i was dying for kites...
ReplyDeleteMujhe aaj bhi yad hai, us april ki dhup main ghanto patango k piche bhagna.Akhbaar(newspaper),sikki(stick)ke kamachi se guddi(patang) banana, aur maje ki baat ye hai ki tab sunburn ya garmi ki fikr nahi hoti thi, life was totally BINDASS. Sabse jada maza aata tha guddi lootne main.." here-here hai hamoro chakay, kahaye chio hati jo" thodi bahut nook-jook v sath walo se ho jati thi..That was really amazing. Thode dino bad hum trendy patang uddane lage the.., Bhai ne sikhya tha patang banane ko, thin paper ki patang usme thodi stylish cutting, aisa lagta tha jaise aasman main "WHITE ORANDA" udh rahi hoo. These are the beautiful memories of ma childhood.That was really-really great. "Mere sabhi gaunwalo ko VISHWA ki dheo shubhkamnaien"
maza aa gaya,
ReplyDeleteWow! divyanshu G, maine apka lekh pada or kho gaya apne us goan me jaha ke hum paida huye the.
thanx dear
E lekh bahut pasand aailhon.Hammen 30 saal pichhe,baalakthan me Guddi udabai ke yaad aabi gelai.
ReplyDeleteManoj Mishra
Begusarai
मनोजजी आपके लेख का इंतजार रहेगा। हमें खुशी होगी ब्लॉग में शामिल कर। छतहार के बारे में आप जो कुछ भी महसूस करते हैं, जो जानकारी देना चाहते हैं उसका स्वागत है। ये ब्लॉग आपका ही है। मेरी कोशिश है कि छतहार जो लोग गांव से बाहर रहते हैं उन्हें छतहार से जोड़े रखना। हालांकि छतहार में अभी इंटरनेट की व्यवस्था नहीं हो पाई, ना ही वहां के लोग बहुत रुचि दिखा रहे हैं इसलिए जिस मकसद से ये ब्लॉग बनाया गया है वो फिलहाल पूरा नहीं हो पा रहा। लेकिन आप जैसे लोग अगर रुचि दिखाएंगे तो जरूर छतहार को मंजिल मिलेगी।
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