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Saturday, November 6, 2010

छतहार में मेला शुरू

शिवाला में मां काली की पूजा के साथ छतहार में सालाना मेला शुरू हो गया। दीवाली की रात शिवाला में परंपरागत तरीके से मां की काली की पूजा हुई और सात पाठों की निशा बलि दी गई। हर साल दीवाली के अगले रोज से भैया दूज के दिन तक छतहार में मेला लगता है। मेले की तैयारी एक दिन पहले से ही शुरू हो गई थी। मिठाई की कुछ दुकानें दीवाली की सुबह ही सज गई थीं, लेकिन आज सुबह से मेले में रौनक बढ़ती गई।

2 comments:

  1. 'असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय ' यानी कि असत्य की ओर नहीं सत्‍य की ओर, अंधकार नहीं प्रकाश की ओर, मृत्यु नहीं अमृतत्व की ओर बढ़ो ।

    दीप-पर्व की आपको ढेर सारी बधाइयाँ एवं शुभकामनाएं ! आपका - अशोक बजाज रायपुर

    ग्राम-चौपाल में आपका स्वागत है
    http://www.ashokbajaj.com/2010/11/blog-post_06.html

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  2. शायद ज़िंदगी बदल रही है!!


    जब मैं छोटा था, शायद दुनिया

    बहुत बड़ी हुआ करती थी..

    मुझे याद है मेरे घर से "स्कूल" तक

    का वो रास्ता, क्या क्या नहीं था वहां,

    चाट के ठेले, जलेबी की दुकान,

    बर्फ के गोले, सब कुछ,

    अब वहां "मोबाइल शॉप",

    "विडियो पार्लर" हैं,

    फिर भी सब सूना है..

    शायद अब दुनिया सिमट रही है...
    .
    .
    .

    जब मैं छोटा था,

    शायद शामें बहुत लम्बी हुआ करती थीं...


    मैं हाथ में पतंग की डोर पकड़े,

    घंटों उड़ा करता था,

    वो लम्बी "साइकिल रेस",
    वो बचपन के खेल,

    वो हर शाम थक के चूर हो जाना,

    अब शाम नहीं होती, दिन ढलता है

    और सीधे रात हो जाती है.

    शायद वक्त सिमट रहा है..

    .

    .

    .


    जब मैं छोटा था,

    शायद दोस्ती

    बहुत गहरी हुआ करती थी,

    दिन भर वो हुजूम बनाकर खेलना,

    वो दोस्तों के घर का खाना,

    वो लड़कियों की बातें,

    वो साथ रोना...

    अब भी मेरे कई दोस्त हैं,
    पर दोस्ती जाने कहाँ है,

    जब भी "traffic signal" पे मिलते हैं

    "Hi" हो जाती है,

    और अपने अपने रास्ते चल देते हैं,

    होली, दीवाली, जन्मदिन,

    नए साल पर बस SMS आ जाते हैं,

    शायद अब रिश्ते बदल रहें हैं..
    .

    .


    जब मैं छोटा था,
    तब खेल भी अजीब हुआ करते थे,

    छुपन छुपाई, लंगडी टांग,
    पोषम पा, कट केक,
    टिप्पी टीपी टाप.

    अब internet, office,
    से फुर्सत ही नहीं मिलती..

    शायद ज़िन्दगी बदल रही है.
    .
    .
    .

    जिंदगी का सबसे बड़ा सच यही है..
    जो अक्सर कबरिस्तान के बाहर
    बोर्ड पर लिखा होता है...

    "मंजिल तो यही थी,
    बस जिंदगी गुज़र गयी मेरी
    यहाँ आते आते"
    .
    .
    .
    ज़िंदगी का लम्हा बहुत छोटा सा है...

    कल की कोई बुनियाद नहीं है

    और आने वाला कल सिर्फ सपने में ही है..

    अब बच गए इस पल में..

    तमन्नाओं से भरी इस जिंदगी में
    हम सिर्फ भाग रहे हैं..
    कुछ रफ़्तार धीमी करो,
    मेरे दोस्त,

    और इस ज़िंदगी को जियो...
    खूब जियो मेरे दोस्त,
    और औरों को भी जीने दो...

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