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Saturday, January 28, 2012

सरस्वती पूजा की शुभकामनाएं

आज बसंत पंचमी है। छतहार वालों के लिए ये सरस्वती पूजा का दिन है। छतहार से करीब हजार मील दूर यहां दिल्ली में आज याद आ रहे हैं वो दिन जब हम सरस्वती पूजा किसी उत्सव की तरह मनाते थे। आज मुझे इस दिन का अहसास भी नहीं होता अगर फेसबुक पर मेरठ के मेरे एक वरिष्ठ मित्र ने सरस्वती पूजा के बारे में जानकारी ना दी  होती। अनायास ही जेहन में घूमने लगी वो यादें जो छतहार सरस्वती पूजा से जुड़ी थीं। ये घर और गांव का संस्कार ही था कि विद्यार्थी जीवन में हमारे लिए मां सरस्वती से बड़ी कोई देवी नहीं थी। किताब ही नहीं किसी कागज पर भी पैर पड़ जाए तो तुरंत हम उसे प्रणाम करते थे। तब हमारे विद्या कसम से बढ़कर कोई कसम नहीं हुआ करती थी। ये और बात है कि आज विद्या का मतलब विद्या बालन हो गई हैं। हम अपने घरों और स्कूलों में सरस्वती पूजा की तैयारी हफ्ते भर पहले ही शुरू कर देते थे। साड़ी और झालरों से बकायदा उस जगह को सजाया जाता था जहां मां सरस्वती की तस्वीर रखते थे। पूजा के जोश में जनवरी के जाड़े की परवाह नहीं होती और सुबह से ही नहा धोकर पूजा पर बैठ जाते थे क्योंकि घर की पूजा में लेट होने का मतलब था स्कूल जाने में लेट क्योंकि बड़ा आयोजन तो स्कूल में होता था। बुंदिया, मिसरी कंद, बेर, अमरूद। ये मुख्य प्रसाद होता था सरस्वती पूजा में। घर में पूजा खत्म करने के बाद हम शिशु ज्ञान मंदिर, धौनी की तरफ कूच करते। वहां प्रसाद ग्रहण करने के बाद सिलसिला शुरू होता है मूर्तियों के दर्शन का। तारापुर, धौनी और मोहनगंज का चक्कर लगाने के बाद हम गांव लौटते। तब गांव में पुस्तकालय, मिडिल स्कूल, सच्चो बाबा और लंबो बाबा के घर पर मुख्य रूप से मां शारदा की मूर्तियां लगती थीं। खास आयोजन सच्चो बाबा के घर होता। जहां बबलू चा के नेतृत्व में पूरा टोला आयोजन में जुटा रहता। शाम से देर रात तक मां सरस्वती की प्रार्थना, भजन। और फिर वक्त काटने के लिए तरह-तरह की गप्पबाजी। फिर अगली शाम मूर्ति विसर्जन। घर से बड़ुवा नदी तक का पूरा रास्ता मां सरस्वती के नारों से गुंजायमान हो जाता। सरस्वती माता विद्या दाता। नमो नमस्ते सरस्वती भसते। हे हौ की हौ देवी जी जैय हो। तरह तरह के नारे होते, जो अब स्मरण भी नहीं आता। अगर कोई पाठक इसमें एड करना चाहें तो उनका स्वागत है। 
ये सरस्वती पूजा का वो रूप था जो आज भी सुखद अहसास देता है। इसके बाद मैं कॉलेज की पढ़ाई के लिए भागलपुर आ गया। यहां मुझे सरस्वती पूजा का दूसरा ही रूप देखने को मिला। यहां सरस्वती पूजा मतलब लुच्चे लफंगों के लिए मस्ती की शाम। सरस्वती पूजा के नाम पर जबरन चंदा वसूली। और फिर चंदे से शराबखोरी। भजन के नाम पर सरकाय लो खटिया जाड़ा लागे पर डांस। ये सरस्वती पूजा के दो रूप थे। लेकिन 1995 में दिल्ली आने के बाद वो रूप भी खत्म हो गया क्योंकि यहां मुझे कहीं भी सार्वजनिक रूप से मां सरस्वती की पूजा देखने को नहीं मिली। तो क्या सिर्फ मां सरस्वती सिर्फ बिहार के लिए हैं। ऐसा है तो चलो, अच्छा है।
  

1 comment:

  1. Himanshu jee,

    Sachmuch 20 saal pahle ka drisya ankho ke saamne ghumne laga.Aaj bhi dono rupon mein pooja dekhi jaa rai hai,Dusre rupon ka percent jyada hai,Bhale hi gaane ke bol badal gaye hain.Is waar Hu la la Hu la la,Note hajaron ke khulla karane aai sunai diya...
    Haan Chhathar mein Saraswati Visarjan Ke Samay ka ek nara aur yaad aa raha hai.. Chhar Chawanni Chandi Ki,Saraswati Maharani Ki.

    Meri Yahi prathana hai "Maan Sharde Vardaan De, Tu Gyan Jag mein Bhar De"...

    Regards
    Manoj Mishra
    9771493616

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