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Friday, May 28, 2010

मेरे बाबूजी

जब भी छतहार के अमर विभूतियों की बात आएगी स्वर्गीय श्री महेंद्र मिश्र के बगैर वो अधूरी ही कहलाएगी। श्री महेंद्र मिश्र, जिन्हें लोग प्यार और आदर से ‘मग’ जी बुलाते थे, हिन्दी साहित्य और आयुर्वेद के प्रकांड पंडित थे। वो राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के समकालीन थे। बहुत कम लोगों को पता होगा वो दिनकर जी के गुरु सरीखे थे। लेकिन जिंदगी के प्रति फकीरों वाला अंदाजा, पैसे और प्रसिद्धि को लेकर बेरुखी की वजह से वक्त के साथ ‘मग’ जी गुमनाम हो गए। रही सही कसर अग्निकांड ने पूरी कर दी, जिसमें उनकी रचनाएं जलकर खाक हो गईं। हमने उनकी स्मृतियों को जिंदा करने की कोशिश की है। हम पेश कर रहे हैं ‘मग’ जी यादें उनके ज्येष्ठ सुपुत्र श्री निर्मल कुमार मिश्र की जुबानी, जो खुद भी हिन्दी और अंग्रेजी साहित्य के विद्वान हैं। तमाम पाठकों से हमारी गुजारिश है कि अगर ‘मग’ जी को लेकर उनके पास कोई यादें या उनकी कोई रचना हो तो हमसे साझा करें क्योंकि छतहार के इस अमूल्य धरोहर को जिंदा रखने का काम हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा। -मॉडरेटर

कहां से शुरू करूं कहां खत्म करूं। बाबूजी का व्यक्तित्व ही ऐसा था जिसे थोड़े में सहेजना मुश्किल है। फिर भी कोशिश करता हूं। शुरुआत गंगा से, जिसके बगैर बाबूजी की याद पूरी नहीं हो पाएगी। सन 1930 से 1960 तक ‘मग’ जी की ख्याति चरमसीमा पर थी। यह वो काल था जब सुल्तानगंज से प्रकाशित मासिक पत्रिका गंगा की स्पर्धा तत्कालीन विख्यात मासिक पत्रिका वीणा, हंस, चांद, पांचजन्य इत्यादि पत्रिकाओं से चल रही थी। हर घर में रामायण की तरह संजो कर रखी जाती थी गंगा। आज भी गंगा पत्रिका की पुरानी प्रति बहुत से घरों में धरोहर की तरह सुरक्षित हैं। बनैली के राजा, जिनका गढ़ सुल्तानगंज में था, के संरक्षण में यह पत्रिका फल-फूल रही थी कि राजा के आकस्मिक निधन ने गंगा की धारा को ही लुप्त कर दिया।
गंगा के प्रमुख संपादक श्री राहुल सांस्कृत्यायन, श्री शिवपूजन सहाय थे। इनके जाने के बाद गंगा के संपादन का भार मेरे बाबूजी यानी ‘मग’ जी पर पड़ गया। गंगा से प्रकाशित वेदांक, पुरातत्वांक, चरित्रांक व विज्ञानांक आज भी शोध करने वाले छात्रों के लिए अमूल्य निधि हैं। इसके प्रकाशन में ‘मग’ जी का योगदान स्तुत्य है। ‘मग’ जी ने राहुल सांस्कृत्यायन के सहयोग से पुरात्वांक क्या निकाला विदेशी विद्वान इससे बहुत प्रभावित हुए। हाल ही में दैनिक हिन्दुस्तान ने पुरातत्वांक की संपूर्ण सामग्री धारावाहिक के रूप में प्रकाशित की। इसमें बाबूजी के लेख उल्लेखनीय हैं।
ऋगवेद का हिन्दी में अनुवाद कर ना केवल वेद का उद्घार किया बल्कि हिन्दी भाषा को भी शक्ति दी। उस समय के लिए ये अत्यंत कठिन काम था, लेकिन जिस सहजता से इस काम को पूरा किया गया उसे इसके मर्मज्ञ ही समझ सकते हैं।
उन्होंने दो उपन्यास लिखे- अतृप्त और दो दिनों की दुनिया। ये दोनों उपन्यास हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय वाराणसी और चौखम्बा प्रकाशन वाराणसी से प्रकाशित हुए। घटना की रोचकता और भाषा की प्रांजलता इसके प्राण हैं। उनकी कहानियां और कविताएं सामयिक पत्रिकाओं में खूब प्रकाशित हुईं। कल्याण के नारी अंक में भी आप साहित्याचार्य ‘मग’ नाम से लेख देख सकते हैं।
पटना से प्रकाशित नई धारा पत्रिका थे रामवृक्ष बेनीपुरी। बेनीपुरीजी के आग्रह पर बाबूजी ने दो लेख भेजे जिसे संस्कृतज्ञों ने बहुत सराहा। प्रफुल्ल चंद्र ओझा ‘मुक्त’ पटना आकाशवाणी में हिन्दी वार्ता के निदेशक थे। ‘मग’ जी की विद्वता से प्रभावित होकर उन्होंने आकाशवाणी पटना के लिए अनुबंधित किया। चूंकि गांव में एक ही रेडियो सेट था तो आकाशवाणी से जब उनकी वार्ता प्रसारित होती तो उसे सुनने के लिए रेडियो सेट के इर्द-गिर्द भीड़ लग जाती थी। ऐसा था लोगों के दिलों पर बाबूजी का असर।
तारापुर के आदर्श विद्यालय में तुलसी जयंती और विद्यापति जयंती की परंपरा बाबूजी ने शुरू की थी। जब भी तुलसी जयंती, विद्यापति जयंती मनाई जाती तो वो बाबूजी के सभापतित्व में ही होता। बापूजी यानी ‘मग’ जी की मौजूदगी की वजह से ऐसे आयोजनों में कभी श्रोताओं की कमी नहीं रही।
उन दिनों ये चर्चा थी कि रामवृक्ष बेनीपुरी के ठहाके का कोई जोड़ नहीं था। जब साहित्यकारों के बीच बेनीपुरीजी बोलते तो हंसी का फव्वारा फूट पड़ता। ठीक वैसे ही ‘मग’ जी का भी मिजाज था। पहनावा उहनावा तो उनके पास कुछ नहीं था। सिर्फ दो मीटर कपड़े का पुतला बनाकर लपेटे रहते। लेकिन इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता। ध्यान जाता तो सिर्फ उनकी विनोदप्रिय बातों पर। उनके सामने जो भी रहता हंसते-हंसते लोटपोट हुए बिना नहीं रहता। बातों में सबका मन बहलाए रहते थे बाबूजी।
उनके सामने ना तो कोई समस्या लेकर आता और ना ही उनके पास अपनी कोई समस्या थी जिसका रोना वो दुनिया के सामने रोते। उनकी जीवन तो फकीर की तरह था। खेत की मेड़ पर जनपाट को उन्हीं की बोली में रिझाते तो चाहे काशी के धुरंधर पंडित हों या तिलडिहा के स्वर्गीय पंडित श्यामाकांत झा हों अथवा वहां के ही प्रकांड उद्भट विद्वान श्री उदयकांत झा- उनसे उन्हीं की तरह ओजपूर्ण बातें करते। साहित्याचार्यों की महफिलों में वो स्वनिर्मित श्लोक सुनाते लोगों को विस्मित कर देते।
मैंने कहा ना गंगा की धारा अवरुद्ध हुई तो साहित्य से इन्होंने खुद को अलग कर लिया। इन्होंने आयुर्वेदाचार्य की डिग्री काशी से ली और आयुर्वेदिक चिकित्सा में लग गए। लेकिन इसमें भी पैसा कमाना इनका उद्देश्य नहीं था। उन्हें चिंता बस गरीबों की सेवा की थी।
‘मग’ जी के पिता यानी मेरे दादा श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र भागलपुर कचहरी में नाजिर थे। उनका और फिर उनके बाबा यानी मेरे पड़बाबा श्री बुलाकीलाल मिश्र का निधन थोड़े अंतराल में हो गया। बड़ों का साया सिर उठने से घर की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई। मजबूरी में खेती जैसे गार्हस्थ पेशे को संभालना पड़ा। अब साहित्य सृजन में लगन बाबूजी के वश की बात नहीं रह गई। अब तो पानी के लिए आसमान की ओर टकटकी लगाकर देखना ही उनकी दिनचर्या बन गई।
बाबूजी का कहना था कि रामधारी सिंह दिनकर की कविता पहली बार गंगा में उन्होंने ही छापी थी। उसके बाद ही गंगा में नौकरी ढ़ूंढ़ते दिनकरजी इनके ऑफिस आए तो कुछ दिनों सह संपादन का काम उन्होंने किया।
इसी संदर्भ में एक घटना मुझे याद आ रही है। मैं भागलपुर के स्नातकोत्तर अंग्रेजी विभाग में फाइनल ईयर का छात्र था। बाबूजी को दिनकर जी से मिलना था। दिनकर जी उन दिनों भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति थे। उनको लेकर मैं उनके आवास छावनी कोठी गया। पिताजी का पहनावा देखकर मैं गुस्से में भर गया। मामूली चप्पल, मामूली कुर्ता और धोती। शायद इतने मामूली ढंग से प्रेमचंद भी ना रहते होंगे और प्रेमचंद के साथ तो मजबूरी थी पर बाबूजी के साथ क्या मजबूरी। वो तो जमींदार खानदान से थे। मैं ये सोच-सोच गड़ा जा रहा था क्योंकि मैं सूट कोट और टाई में था। दिनकरजी को एक पुर्जी में ‘मग’ लिखकर भेज दिया था। बुलावा तुरंत आ गया। अंदर की बातचीत मैं कान लगाकर बाहर ही सुन रहा था। दिनकरजी ने कहा-ये कैसा भेष है? ना दाढ़ी बनाया ना ही... बाबूजी ने बीच में ही काटकर कहा-मेरे भेष को छोड़ो तुम शायद भूल गए हो कि सुल्तानगंज घाट के किनारे बैठकर किस तरह मूढ़ी, चूड़ा, घुंघनी खाते थे। और फिर बुलंद ठहाके से कमरा गूंज उठा। दफ्तर के किरानी अवाक थे। ऐसे विचित्र प्राणी से दिनकरजी को मिलते शायद कभी नहीं देखा था। इस असमंजस को दिनकर जी ने तोड़ा और कहा ये मेरे पुराने मित्र हैं और गंगा के संपादक थे। ये साहित्याचार्य ‘मग’ के नाम से जाने जाते हैं। फिर दोनों बाहर आए और मुझे देखकर पूछा कि ये कौन है। जब उनको पता चला कि मैं उनका पुत्र हूं तो कभी मुझे देखा और कभी पिताजी को। यह बतलाना मैं जरूरी नहीं समझता कि उन्होंने क्या समझा। सुविज्ञ को स्वत: ही समझ लेना चाहिए।
उनकी उदारता, दयालुता के बारे में क्या कहूं नजरों के सामने एक दृश्य उभरता है। पूरे गांव में आग लगी थी। सैंकड़ों घर देखते ही देखते खाक हो गए। मेरे घर में भी आग लगी थी। दमकल आया। मेरे घर में ज्यादा आग लगी देख और अधिक क्षति का अनुमान कर दमकलकर्मियों ने पहले मेरे ही घर की आग को बुझाना चाहा लेकिन बाबूजी ने मना कर दिया और गरीबों के झोपड़े में लगी आग पहले बुझाने का निर्देश दिया।
और फिर बगल की गांव के स्कूल के विद्यार्थी जो आग बुझाने आए थे और काफी थक चुके थे उनके खाने के लिए आलू के बोरे निकाल दिए जो आग में पक चुके थे।
अंत में मैं उनके जीवन की प्रेरणास्पद बात की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं। घर का इकलौता बेटा होने की वजह से बाबूजी का लालन-पालन अत्यंत दुलार से हुआ। 15-16 साल तक उन्होंने स्कूल का मुंह नहीं देखा। ससुराल में खिल्ली उड़ी तो चेतना जाग गई। संकल्प के साथ गया के खुरखुरा विद्यालय में अध्ययन किया। फिर काशी जाकर आचार्य की उपाधि ली। इसके बाद तो मानों बाबूजी के सिर पर सरस्वती विराजमान हो गईं। लगन और परिश्रम के बल पर इंसान क्या नहीं कर सकता इसकी मिसाल हैं मेरे बाबूजी।
पैसे से उन्हें कोई मोह नहीं था ना ही चाहत। प्रसिद्धि पाने की अभिलाषा भी उन्हें नहीं थी। वो चाहते अपने बूते बहुत कुछ कर सकते थे। यही वजह है कि उन्होंने अपनी कोई कृति सहेज कर नहीं रखी। अग्निकांड में उनकी सारी रचनाएं स्वाहा हो गईं। अब ये हम लोगों का दायित्व है कि हम उन्हें ढूंढ़ें और उनके कार्यों पर शोध करें। उनकी जब मृत्यु हुई तो उनकी इच्छा थी unlamented let me die.
कहते हैं फकीरों के सेहत की जाम दुनियावी तकलीफों और जिल्लत को मिटाने वाली होती है। किसी फकीर को रास्ते में देखता हूं तो उसी में अपने बाबूजी की सूरत ढ़ूंढ कर सकून पाता हूं।

9 comments:

  1. we are follower with his inspiration

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  2. Waah ! aaj tak main param pujya sri MAG Jee ke vare main suna hi tha,Aaj unki tasveer dekhkar dhanya ho gaya hun.

    Dear Divyasu,

    Ishwar aap ka saath de aap ka jo prayas hai wah shavdonmein vayan karne ke layak nahi hai.

    Mere Pujya Nirmal Mishra jo hamare Guru Bhi hain,Inke baare mein itna information de kar chhathar baasio ki mariyada kya tha vo new Generation ko bata kar vadi kripa kiye hain.Unhen mera pranam.

    Manoj Mishra(Honeywell)
    Uttar Tola , Chhathar

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  3. they are our inspiration & we are follower.

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  4. Main " mere Babuji" Padhkar kafi avibhut hun. Mujhe garv hai chhathar ke un logo per jinohne apna contribution chhathar ke nam roshan karne me diya hai. First of all my heartlly thanks to Respected mukhiya Ji And Himanshu Too. Thanks a lot. From Murari, Income Tax Deptt. Surat

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  5. Main " mere Babuji" Padhkar kafi avibhut hun. Mujhe garv hai chhathar ke un logo per jinohne apna contribution chhathar ke nam roshan karne me diya hai. First of all my heartlly thanks to Respected mukhiya Ji And Himanshu Too. Thanks a lot. From Murari, Income Tax Deptt. Surat

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  6. kai baar se sochta tha, ki kuchh kaha jaye par hindi font ki kami rahne ke karan aisa nahi kar pa raha tha. Aapke gaon ki maati ki maiak mere badan par bhi hai isliye main sahaj hi iss blog kee taraf aakarshit hoon. Blogs ko google translator se parhna padta hai. Achchha lagta hai. Lage rahiye. Uday Shankar Upadhyay, Giridih

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  7. aj me param pujya chhathar ki shan MAG JI ke bare padhkar dhanya ho gaya .ap ko bhut bhut sadhubad ap isi trah likhte rahe or bhut sari jankari se avgat krayen .bhagvan apko safalta de. RAJEEV JHA s/o binoda nand jha chhathar

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  8. Dear Himanu,

    Comments of Jyotindra Mishra -------


    Inspired by Manoj Mishra chhathar ,I got a opportunity to view the CHHATHAR BLOG moderated by Sri Himanshu .In fact he has also ranked him self among the pioneer person of chhathar.Thanks to him.

    I also read the essay of Nirmal Mishra Ji , MERE BABUJI in which the learned writer has proved him self that his also having the classic test in his pen for which his father MAG JI was ever praised. No doubt,the hummer persists properly in the pen of Nirmal Mishra ji in the same sprit of hummer as the MAG JI possessed in his pen.As such MAG JI only reflex in the language of his son sri Nirmal Mishra. I pay my highest regards to
    This classic attitude. Fortunately I had an opportunity to sit before MAG JI.So that I am
    Fully satisfied with the motive and mission of this essay.

    Jyotindra Mishra
    Lyric writer
    Patna
    09835130185

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  9. bhai bahut achha prayash hai maine to unka photo aaj hi dekha , dhany hua , unke pariwar me bhi sabhi vidw bibhutiyan aaj bhi samaj ko gyan bant rahe hain sanjay mishra chhatahar (amdiha)

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