आपसे निवेदन
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Sunday, May 30, 2010
मिलिये छतहार के टॉपर से
छतहार से अच्छी खबर। मैट्रिक परीक्षा के नतीजे आ गए हैं। इस बार छतहार के टॉपर रहे शशिकांत मिश्र सुपुत्र प्रो. रजनीकांत मिश्र। आदर्श उच्च विद्यालय तारापुर के छात्र शशि ने ५०० में ४०६ अंक हासिल किए। इसी तरह प्रेम कुमार पुत्र श्री प्रीतम राय ने ५०० में ३९८ अंक हासिल कर प्रथम श्रेणी से मैट्रिक परीक्षा पास की। हम शशि और प्रेम के उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हैं।
Friday, May 28, 2010
मेरे बाबूजी
जब भी छतहार के अमर विभूतियों की बात आएगी स्वर्गीय श्री महेंद्र मिश्र के बगैर वो अधूरी ही कहलाएगी। श्री महेंद्र मिश्र, जिन्हें लोग प्यार और आदर से ‘मग’ जी बुलाते थे, हिन्दी साहित्य और आयुर्वेद के प्रकांड पंडित थे। वो राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के समकालीन थे। बहुत कम लोगों को पता होगा वो दिनकर जी के गुरु सरीखे थे। लेकिन जिंदगी के प्रति फकीरों वाला अंदाजा, पैसे और प्रसिद्धि को लेकर बेरुखी की वजह से वक्त के साथ ‘मग’ जी गुमनाम हो गए। रही सही कसर अग्निकांड ने पूरी कर दी, जिसमें उनकी रचनाएं जलकर खाक हो गईं। हमने उनकी स्मृतियों को जिंदा करने की कोशिश की है। हम पेश कर रहे हैं ‘मग’ जी यादें उनके ज्येष्ठ सुपुत्र श्री निर्मल कुमार मिश्र की जुबानी, जो खुद भी हिन्दी और अंग्रेजी साहित्य के विद्वान हैं। तमाम पाठकों से हमारी गुजारिश है कि अगर ‘मग’ जी को लेकर उनके पास कोई यादें या उनकी कोई रचना हो तो हमसे साझा करें क्योंकि छतहार के इस अमूल्य धरोहर को जिंदा रखने का काम हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा। -मॉडरेटर
कहां से शुरू करूं कहां खत्म करूं। बाबूजी का व्यक्तित्व ही ऐसा था जिसे थोड़े में सहेजना मुश्किल है। फिर भी कोशिश करता हूं। शुरुआत गंगा से, जिसके बगैर बाबूजी की याद पूरी नहीं हो पाएगी। सन 1930 से 1960 तक ‘मग’ जी की ख्याति चरमसीमा पर थी। यह वो काल था जब सुल्तानगंज से प्रकाशित मासिक पत्रिका गंगा की स्पर्धा तत्कालीन विख्यात मासिक पत्रिका वीणा, हंस, चांद, पांचजन्य इत्यादि पत्रिकाओं से चल रही थी। हर घर में रामायण की तरह संजो कर रखी जाती थी गंगा। आज भी गंगा पत्रिका की पुरानी प्रति बहुत से घरों में धरोहर की तरह सुरक्षित हैं। बनैली के राजा, जिनका गढ़ सुल्तानगंज में था, के संरक्षण में यह पत्रिका फल-फूल रही थी कि राजा के आकस्मिक निधन ने गंगा की धारा को ही लुप्त कर दिया।
गंगा के प्रमुख संपादक श्री राहुल सांस्कृत्यायन, श्री शिवपूजन सहाय थे। इनके जाने के बाद गंगा के संपादन का भार मेरे बाबूजी यानी ‘मग’ जी पर पड़ गया। गंगा से प्रकाशित वेदांक, पुरातत्वांक, चरित्रांक व विज्ञानांक आज भी शोध करने वाले छात्रों के लिए अमूल्य निधि हैं। इसके प्रकाशन में ‘मग’ जी का योगदान स्तुत्य है। ‘मग’ जी ने राहुल सांस्कृत्यायन के सहयोग से पुरात्वांक क्या निकाला विदेशी विद्वान इससे बहुत प्रभावित हुए। हाल ही में दैनिक हिन्दुस्तान ने पुरातत्वांक की संपूर्ण सामग्री धारावाहिक के रूप में प्रकाशित की। इसमें बाबूजी के लेख उल्लेखनीय हैं।
ऋगवेद का हिन्दी में अनुवाद कर ना केवल वेद का उद्घार किया बल्कि हिन्दी भाषा को भी शक्ति दी। उस समय के लिए ये अत्यंत कठिन काम था, लेकिन जिस सहजता से इस काम को पूरा किया गया उसे इसके मर्मज्ञ ही समझ सकते हैं।
उन्होंने दो उपन्यास लिखे- अतृप्त और दो दिनों की दुनिया। ये दोनों उपन्यास हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय वाराणसी और चौखम्बा प्रकाशन वाराणसी से प्रकाशित हुए। घटना की रोचकता और भाषा की प्रांजलता इसके प्राण हैं। उनकी कहानियां और कविताएं सामयिक पत्रिकाओं में खूब प्रकाशित हुईं। कल्याण के नारी अंक में भी आप साहित्याचार्य ‘मग’ नाम से लेख देख सकते हैं।
पटना से प्रकाशित नई धारा पत्रिका थे रामवृक्ष बेनीपुरी। बेनीपुरीजी के आग्रह पर बाबूजी ने दो लेख भेजे जिसे संस्कृतज्ञों ने बहुत सराहा। प्रफुल्ल चंद्र ओझा ‘मुक्त’ पटना आकाशवाणी में हिन्दी वार्ता के निदेशक थे। ‘मग’ जी की विद्वता से प्रभावित होकर उन्होंने आकाशवाणी पटना के लिए अनुबंधित किया। चूंकि गांव में एक ही रेडियो सेट था तो आकाशवाणी से जब उनकी वार्ता प्रसारित होती तो उसे सुनने के लिए रेडियो सेट के इर्द-गिर्द भीड़ लग जाती थी। ऐसा था लोगों के दिलों पर बाबूजी का असर।
तारापुर के आदर्श विद्यालय में तुलसी जयंती और विद्यापति जयंती की परंपरा बाबूजी ने शुरू की थी। जब भी तुलसी जयंती, विद्यापति जयंती मनाई जाती तो वो बाबूजी के सभापतित्व में ही होता। बापूजी यानी ‘मग’ जी की मौजूदगी की वजह से ऐसे आयोजनों में कभी श्रोताओं की कमी नहीं रही।
उन दिनों ये चर्चा थी कि रामवृक्ष बेनीपुरी के ठहाके का कोई जोड़ नहीं था। जब साहित्यकारों के बीच बेनीपुरीजी बोलते तो हंसी का फव्वारा फूट पड़ता। ठीक वैसे ही ‘मग’ जी का भी मिजाज था। पहनावा उहनावा तो उनके पास कुछ नहीं था। सिर्फ दो मीटर कपड़े का पुतला बनाकर लपेटे रहते। लेकिन इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता। ध्यान जाता तो सिर्फ उनकी विनोदप्रिय बातों पर। उनके सामने जो भी रहता हंसते-हंसते लोटपोट हुए बिना नहीं रहता। बातों में सबका मन बहलाए रहते थे बाबूजी।
उनके सामने ना तो कोई समस्या लेकर आता और ना ही उनके पास अपनी कोई समस्या थी जिसका रोना वो दुनिया के सामने रोते। उनकी जीवन तो फकीर की तरह था। खेत की मेड़ पर जनपाट को उन्हीं की बोली में रिझाते तो चाहे काशी के धुरंधर पंडित हों या तिलडिहा के स्वर्गीय पंडित श्यामाकांत झा हों अथवा वहां के ही प्रकांड उद्भट विद्वान श्री उदयकांत झा- उनसे उन्हीं की तरह ओजपूर्ण बातें करते। साहित्याचार्यों की महफिलों में वो स्वनिर्मित श्लोक सुनाते लोगों को विस्मित कर देते।
मैंने कहा ना गंगा की धारा अवरुद्ध हुई तो साहित्य से इन्होंने खुद को अलग कर लिया। इन्होंने आयुर्वेदाचार्य की डिग्री काशी से ली और आयुर्वेदिक चिकित्सा में लग गए। लेकिन इसमें भी पैसा कमाना इनका उद्देश्य नहीं था। उन्हें चिंता बस गरीबों की सेवा की थी।
‘मग’ जी के पिता यानी मेरे दादा श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र भागलपुर कचहरी में नाजिर थे। उनका और फिर उनके बाबा यानी मेरे पड़बाबा श्री बुलाकीलाल मिश्र का निधन थोड़े अंतराल में हो गया। बड़ों का साया सिर उठने से घर की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई। मजबूरी में खेती जैसे गार्हस्थ पेशे को संभालना पड़ा। अब साहित्य सृजन में लगन बाबूजी के वश की बात नहीं रह गई। अब तो पानी के लिए आसमान की ओर टकटकी लगाकर देखना ही उनकी दिनचर्या बन गई।
बाबूजी का कहना था कि रामधारी सिंह दिनकर की कविता पहली बार गंगा में उन्होंने ही छापी थी। उसके बाद ही गंगा में नौकरी ढ़ूंढ़ते दिनकरजी इनके ऑफिस आए तो कुछ दिनों सह संपादन का काम उन्होंने किया।
इसी संदर्भ में एक घटना मुझे याद आ रही है। मैं भागलपुर के स्नातकोत्तर अंग्रेजी विभाग में फाइनल ईयर का छात्र था। बाबूजी को दिनकर जी से मिलना था। दिनकर जी उन दिनों भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति थे। उनको लेकर मैं उनके आवास छावनी कोठी गया। पिताजी का पहनावा देखकर मैं गुस्से में भर गया। मामूली चप्पल, मामूली कुर्ता और धोती। शायद इतने मामूली ढंग से प्रेमचंद भी ना रहते होंगे और प्रेमचंद के साथ तो मजबूरी थी पर बाबूजी के साथ क्या मजबूरी। वो तो जमींदार खानदान से थे। मैं ये सोच-सोच गड़ा जा रहा था क्योंकि मैं सूट कोट और टाई में था। दिनकरजी को एक पुर्जी में ‘मग’ लिखकर भेज दिया था। बुलावा तुरंत आ गया। अंदर की बातचीत मैं कान लगाकर बाहर ही सुन रहा था। दिनकरजी ने कहा-ये कैसा भेष है? ना दाढ़ी बनाया ना ही... बाबूजी ने बीच में ही काटकर कहा-मेरे भेष को छोड़ो तुम शायद भूल गए हो कि सुल्तानगंज घाट के किनारे बैठकर किस तरह मूढ़ी, चूड़ा, घुंघनी खाते थे। और फिर बुलंद ठहाके से कमरा गूंज उठा। दफ्तर के किरानी अवाक थे। ऐसे विचित्र प्राणी से दिनकरजी को मिलते शायद कभी नहीं देखा था। इस असमंजस को दिनकर जी ने तोड़ा और कहा ये मेरे पुराने मित्र हैं और गंगा के संपादक थे। ये साहित्याचार्य ‘मग’ के नाम से जाने जाते हैं। फिर दोनों बाहर आए और मुझे देखकर पूछा कि ये कौन है। जब उनको पता चला कि मैं उनका पुत्र हूं तो कभी मुझे देखा और कभी पिताजी को। यह बतलाना मैं जरूरी नहीं समझता कि उन्होंने क्या समझा। सुविज्ञ को स्वत: ही समझ लेना चाहिए।
उनकी उदारता, दयालुता के बारे में क्या कहूं नजरों के सामने एक दृश्य उभरता है। पूरे गांव में आग लगी थी। सैंकड़ों घर देखते ही देखते खाक हो गए। मेरे घर में भी आग लगी थी। दमकल आया। मेरे घर में ज्यादा आग लगी देख और अधिक क्षति का अनुमान कर दमकलकर्मियों ने पहले मेरे ही घर की आग को बुझाना चाहा लेकिन बाबूजी ने मना कर दिया और गरीबों के झोपड़े में लगी आग पहले बुझाने का निर्देश दिया।
और फिर बगल की गांव के स्कूल के विद्यार्थी जो आग बुझाने आए थे और काफी थक चुके थे उनके खाने के लिए आलू के बोरे निकाल दिए जो आग में पक चुके थे।
अंत में मैं उनके जीवन की प्रेरणास्पद बात की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं। घर का इकलौता बेटा होने की वजह से बाबूजी का लालन-पालन अत्यंत दुलार से हुआ। 15-16 साल तक उन्होंने स्कूल का मुंह नहीं देखा। ससुराल में खिल्ली उड़ी तो चेतना जाग गई। संकल्प के साथ गया के खुरखुरा विद्यालय में अध्ययन किया। फिर काशी जाकर आचार्य की उपाधि ली। इसके बाद तो मानों बाबूजी के सिर पर सरस्वती विराजमान हो गईं। लगन और परिश्रम के बल पर इंसान क्या नहीं कर सकता इसकी मिसाल हैं मेरे बाबूजी।
पैसे से उन्हें कोई मोह नहीं था ना ही चाहत। प्रसिद्धि पाने की अभिलाषा भी उन्हें नहीं थी। वो चाहते अपने बूते बहुत कुछ कर सकते थे। यही वजह है कि उन्होंने अपनी कोई कृति सहेज कर नहीं रखी। अग्निकांड में उनकी सारी रचनाएं स्वाहा हो गईं। अब ये हम लोगों का दायित्व है कि हम उन्हें ढूंढ़ें और उनके कार्यों पर शोध करें। उनकी जब मृत्यु हुई तो उनकी इच्छा थी unlamented let me die.
कहते हैं फकीरों के सेहत की जाम दुनियावी तकलीफों और जिल्लत को मिटाने वाली होती है। किसी फकीर को रास्ते में देखता हूं तो उसी में अपने बाबूजी की सूरत ढ़ूंढ कर सकून पाता हूं।
कहां से शुरू करूं कहां खत्म करूं। बाबूजी का व्यक्तित्व ही ऐसा था जिसे थोड़े में सहेजना मुश्किल है। फिर भी कोशिश करता हूं। शुरुआत गंगा से, जिसके बगैर बाबूजी की याद पूरी नहीं हो पाएगी। सन 1930 से 1960 तक ‘मग’ जी की ख्याति चरमसीमा पर थी। यह वो काल था जब सुल्तानगंज से प्रकाशित मासिक पत्रिका गंगा की स्पर्धा तत्कालीन विख्यात मासिक पत्रिका वीणा, हंस, चांद, पांचजन्य इत्यादि पत्रिकाओं से चल रही थी। हर घर में रामायण की तरह संजो कर रखी जाती थी गंगा। आज भी गंगा पत्रिका की पुरानी प्रति बहुत से घरों में धरोहर की तरह सुरक्षित हैं। बनैली के राजा, जिनका गढ़ सुल्तानगंज में था, के संरक्षण में यह पत्रिका फल-फूल रही थी कि राजा के आकस्मिक निधन ने गंगा की धारा को ही लुप्त कर दिया।
गंगा के प्रमुख संपादक श्री राहुल सांस्कृत्यायन, श्री शिवपूजन सहाय थे। इनके जाने के बाद गंगा के संपादन का भार मेरे बाबूजी यानी ‘मग’ जी पर पड़ गया। गंगा से प्रकाशित वेदांक, पुरातत्वांक, चरित्रांक व विज्ञानांक आज भी शोध करने वाले छात्रों के लिए अमूल्य निधि हैं। इसके प्रकाशन में ‘मग’ जी का योगदान स्तुत्य है। ‘मग’ जी ने राहुल सांस्कृत्यायन के सहयोग से पुरात्वांक क्या निकाला विदेशी विद्वान इससे बहुत प्रभावित हुए। हाल ही में दैनिक हिन्दुस्तान ने पुरातत्वांक की संपूर्ण सामग्री धारावाहिक के रूप में प्रकाशित की। इसमें बाबूजी के लेख उल्लेखनीय हैं।
ऋगवेद का हिन्दी में अनुवाद कर ना केवल वेद का उद्घार किया बल्कि हिन्दी भाषा को भी शक्ति दी। उस समय के लिए ये अत्यंत कठिन काम था, लेकिन जिस सहजता से इस काम को पूरा किया गया उसे इसके मर्मज्ञ ही समझ सकते हैं।
उन्होंने दो उपन्यास लिखे- अतृप्त और दो दिनों की दुनिया। ये दोनों उपन्यास हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय वाराणसी और चौखम्बा प्रकाशन वाराणसी से प्रकाशित हुए। घटना की रोचकता और भाषा की प्रांजलता इसके प्राण हैं। उनकी कहानियां और कविताएं सामयिक पत्रिकाओं में खूब प्रकाशित हुईं। कल्याण के नारी अंक में भी आप साहित्याचार्य ‘मग’ नाम से लेख देख सकते हैं।
पटना से प्रकाशित नई धारा पत्रिका थे रामवृक्ष बेनीपुरी। बेनीपुरीजी के आग्रह पर बाबूजी ने दो लेख भेजे जिसे संस्कृतज्ञों ने बहुत सराहा। प्रफुल्ल चंद्र ओझा ‘मुक्त’ पटना आकाशवाणी में हिन्दी वार्ता के निदेशक थे। ‘मग’ जी की विद्वता से प्रभावित होकर उन्होंने आकाशवाणी पटना के लिए अनुबंधित किया। चूंकि गांव में एक ही रेडियो सेट था तो आकाशवाणी से जब उनकी वार्ता प्रसारित होती तो उसे सुनने के लिए रेडियो सेट के इर्द-गिर्द भीड़ लग जाती थी। ऐसा था लोगों के दिलों पर बाबूजी का असर।
तारापुर के आदर्श विद्यालय में तुलसी जयंती और विद्यापति जयंती की परंपरा बाबूजी ने शुरू की थी। जब भी तुलसी जयंती, विद्यापति जयंती मनाई जाती तो वो बाबूजी के सभापतित्व में ही होता। बापूजी यानी ‘मग’ जी की मौजूदगी की वजह से ऐसे आयोजनों में कभी श्रोताओं की कमी नहीं रही।
उन दिनों ये चर्चा थी कि रामवृक्ष बेनीपुरी के ठहाके का कोई जोड़ नहीं था। जब साहित्यकारों के बीच बेनीपुरीजी बोलते तो हंसी का फव्वारा फूट पड़ता। ठीक वैसे ही ‘मग’ जी का भी मिजाज था। पहनावा उहनावा तो उनके पास कुछ नहीं था। सिर्फ दो मीटर कपड़े का पुतला बनाकर लपेटे रहते। लेकिन इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता। ध्यान जाता तो सिर्फ उनकी विनोदप्रिय बातों पर। उनके सामने जो भी रहता हंसते-हंसते लोटपोट हुए बिना नहीं रहता। बातों में सबका मन बहलाए रहते थे बाबूजी।
उनके सामने ना तो कोई समस्या लेकर आता और ना ही उनके पास अपनी कोई समस्या थी जिसका रोना वो दुनिया के सामने रोते। उनकी जीवन तो फकीर की तरह था। खेत की मेड़ पर जनपाट को उन्हीं की बोली में रिझाते तो चाहे काशी के धुरंधर पंडित हों या तिलडिहा के स्वर्गीय पंडित श्यामाकांत झा हों अथवा वहां के ही प्रकांड उद्भट विद्वान श्री उदयकांत झा- उनसे उन्हीं की तरह ओजपूर्ण बातें करते। साहित्याचार्यों की महफिलों में वो स्वनिर्मित श्लोक सुनाते लोगों को विस्मित कर देते।
मैंने कहा ना गंगा की धारा अवरुद्ध हुई तो साहित्य से इन्होंने खुद को अलग कर लिया। इन्होंने आयुर्वेदाचार्य की डिग्री काशी से ली और आयुर्वेदिक चिकित्सा में लग गए। लेकिन इसमें भी पैसा कमाना इनका उद्देश्य नहीं था। उन्हें चिंता बस गरीबों की सेवा की थी।
‘मग’ जी के पिता यानी मेरे दादा श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र भागलपुर कचहरी में नाजिर थे। उनका और फिर उनके बाबा यानी मेरे पड़बाबा श्री बुलाकीलाल मिश्र का निधन थोड़े अंतराल में हो गया। बड़ों का साया सिर उठने से घर की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई। मजबूरी में खेती जैसे गार्हस्थ पेशे को संभालना पड़ा। अब साहित्य सृजन में लगन बाबूजी के वश की बात नहीं रह गई। अब तो पानी के लिए आसमान की ओर टकटकी लगाकर देखना ही उनकी दिनचर्या बन गई।
बाबूजी का कहना था कि रामधारी सिंह दिनकर की कविता पहली बार गंगा में उन्होंने ही छापी थी। उसके बाद ही गंगा में नौकरी ढ़ूंढ़ते दिनकरजी इनके ऑफिस आए तो कुछ दिनों सह संपादन का काम उन्होंने किया।
इसी संदर्भ में एक घटना मुझे याद आ रही है। मैं भागलपुर के स्नातकोत्तर अंग्रेजी विभाग में फाइनल ईयर का छात्र था। बाबूजी को दिनकर जी से मिलना था। दिनकर जी उन दिनों भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति थे। उनको लेकर मैं उनके आवास छावनी कोठी गया। पिताजी का पहनावा देखकर मैं गुस्से में भर गया। मामूली चप्पल, मामूली कुर्ता और धोती। शायद इतने मामूली ढंग से प्रेमचंद भी ना रहते होंगे और प्रेमचंद के साथ तो मजबूरी थी पर बाबूजी के साथ क्या मजबूरी। वो तो जमींदार खानदान से थे। मैं ये सोच-सोच गड़ा जा रहा था क्योंकि मैं सूट कोट और टाई में था। दिनकरजी को एक पुर्जी में ‘मग’ लिखकर भेज दिया था। बुलावा तुरंत आ गया। अंदर की बातचीत मैं कान लगाकर बाहर ही सुन रहा था। दिनकरजी ने कहा-ये कैसा भेष है? ना दाढ़ी बनाया ना ही... बाबूजी ने बीच में ही काटकर कहा-मेरे भेष को छोड़ो तुम शायद भूल गए हो कि सुल्तानगंज घाट के किनारे बैठकर किस तरह मूढ़ी, चूड़ा, घुंघनी खाते थे। और फिर बुलंद ठहाके से कमरा गूंज उठा। दफ्तर के किरानी अवाक थे। ऐसे विचित्र प्राणी से दिनकरजी को मिलते शायद कभी नहीं देखा था। इस असमंजस को दिनकर जी ने तोड़ा और कहा ये मेरे पुराने मित्र हैं और गंगा के संपादक थे। ये साहित्याचार्य ‘मग’ के नाम से जाने जाते हैं। फिर दोनों बाहर आए और मुझे देखकर पूछा कि ये कौन है। जब उनको पता चला कि मैं उनका पुत्र हूं तो कभी मुझे देखा और कभी पिताजी को। यह बतलाना मैं जरूरी नहीं समझता कि उन्होंने क्या समझा। सुविज्ञ को स्वत: ही समझ लेना चाहिए।
उनकी उदारता, दयालुता के बारे में क्या कहूं नजरों के सामने एक दृश्य उभरता है। पूरे गांव में आग लगी थी। सैंकड़ों घर देखते ही देखते खाक हो गए। मेरे घर में भी आग लगी थी। दमकल आया। मेरे घर में ज्यादा आग लगी देख और अधिक क्षति का अनुमान कर दमकलकर्मियों ने पहले मेरे ही घर की आग को बुझाना चाहा लेकिन बाबूजी ने मना कर दिया और गरीबों के झोपड़े में लगी आग पहले बुझाने का निर्देश दिया।
और फिर बगल की गांव के स्कूल के विद्यार्थी जो आग बुझाने आए थे और काफी थक चुके थे उनके खाने के लिए आलू के बोरे निकाल दिए जो आग में पक चुके थे।
अंत में मैं उनके जीवन की प्रेरणास्पद बात की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं। घर का इकलौता बेटा होने की वजह से बाबूजी का लालन-पालन अत्यंत दुलार से हुआ। 15-16 साल तक उन्होंने स्कूल का मुंह नहीं देखा। ससुराल में खिल्ली उड़ी तो चेतना जाग गई। संकल्प के साथ गया के खुरखुरा विद्यालय में अध्ययन किया। फिर काशी जाकर आचार्य की उपाधि ली। इसके बाद तो मानों बाबूजी के सिर पर सरस्वती विराजमान हो गईं। लगन और परिश्रम के बल पर इंसान क्या नहीं कर सकता इसकी मिसाल हैं मेरे बाबूजी।
पैसे से उन्हें कोई मोह नहीं था ना ही चाहत। प्रसिद्धि पाने की अभिलाषा भी उन्हें नहीं थी। वो चाहते अपने बूते बहुत कुछ कर सकते थे। यही वजह है कि उन्होंने अपनी कोई कृति सहेज कर नहीं रखी। अग्निकांड में उनकी सारी रचनाएं स्वाहा हो गईं। अब ये हम लोगों का दायित्व है कि हम उन्हें ढूंढ़ें और उनके कार्यों पर शोध करें। उनकी जब मृत्यु हुई तो उनकी इच्छा थी unlamented let me die.
कहते हैं फकीरों के सेहत की जाम दुनियावी तकलीफों और जिल्लत को मिटाने वाली होती है। किसी फकीर को रास्ते में देखता हूं तो उसी में अपने बाबूजी की सूरत ढ़ूंढ कर सकून पाता हूं।
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Sunday, May 23, 2010
छतहार में मुक्तिधाम
जीवन के बाद मौत संसार का सच है। जो आया है उसे एक ना एक दिन जाना होगा। सृष्टि के इस चक्र को कोई नहीं बदल सकता। लेकिन, मौत के बाद क्या? क्या कोई स्वर्ग या नरक है? मरने के बाद कहां जाता है इंसान? ये कोई नहीं जानता, फिर भी इंसान इस कोशिश में लगा रहता है कि मरने के बाद भी उसके बंधु-बांधवों को कोई परेशानी ना हो। इंसानी देह त्यागने के भी उनके अपने शांति से रहे। इसी मकसद के लिए मृत्यु के बाद कई कर्मकांड किए जाते हैं। दशकर्म, श्राद्ध, आदि आदि।
छतहार में सालों में बड़ुआ नदी के किनारे लोग इस कर्मकांड को करते आए हैं। चाहे जेठ की दुपहरी हो या सावन-भादो की बारिश। कभी ये कर्मकांड नहीं रुका क्योंकि जाने वाला कभी कहकर नहीं जाता। सालों से ये जरुरत महसूस की जा रही थी बड़ुआ नदी के किनारे ऐसी छाया हो जिसके नीचे लोग इन कर्मकांडों को निभा सकें। चूंकि बरगद और पीपल के जो पेड़ पहले छाया देते थे, वो बाढ़ की भेंट चढ़ गए, इसलिए सिर के ऊपर छाये की जरुरत शिद्दत से महसूस की जा रही थी। लोगों के इसी कष्ट को दूर करने के लिए छतहारवासी समाजसेवी श्री शारदा चंद्रमोहन सिंह (चांदबाबू) सामने आए। उन्होंने अपने पैसे से बड़ुवा नदी के किनारे राजेंद्र राजेश्वरी मुक्तिधाम बनवाया है। १५ मार्च को इसका पूरे धार्मिक रीति-रिवाज से उद्घाटन हुआ। मुखियाजी श्रीमनोज कुमार मिश्र ने चंद तस्वीरें भेजी हैं। आप भी देखिये।
छतहार में सालों में बड़ुआ नदी के किनारे लोग इस कर्मकांड को करते आए हैं। चाहे जेठ की दुपहरी हो या सावन-भादो की बारिश। कभी ये कर्मकांड नहीं रुका क्योंकि जाने वाला कभी कहकर नहीं जाता। सालों से ये जरुरत महसूस की जा रही थी बड़ुआ नदी के किनारे ऐसी छाया हो जिसके नीचे लोग इन कर्मकांडों को निभा सकें। चूंकि बरगद और पीपल के जो पेड़ पहले छाया देते थे, वो बाढ़ की भेंट चढ़ गए, इसलिए सिर के ऊपर छाये की जरुरत शिद्दत से महसूस की जा रही थी। लोगों के इसी कष्ट को दूर करने के लिए छतहारवासी समाजसेवी श्री शारदा चंद्रमोहन सिंह (चांदबाबू) सामने आए। उन्होंने अपने पैसे से बड़ुवा नदी के किनारे राजेंद्र राजेश्वरी मुक्तिधाम बनवाया है। १५ मार्च को इसका पूरे धार्मिक रीति-रिवाज से उद्घाटन हुआ। मुखियाजी श्रीमनोज कुमार मिश्र ने चंद तस्वीरें भेजी हैं। आप भी देखिये।
Saturday, May 8, 2010
मुखियाजी का फरमान- हर बच्चा स्कूल जाएगा
छतहार में डुगडुगी बज रही है। मुखियाजी का फरमान आया है कि हर बच्चा स्कूल जाएगा। रमचरणा परेशान है। देवली भी सोच रही है कि उसका बच्चा स्कूल कैसे जाएगा क्योंकि जब बच्चा स्कूल जाएगा तो मजूरी कौन करेगा? मजूरी नहीं करेगा तो पेट कैसे भरेगा?
चिंता वाजिब है। देवली अपने बच्चे को स्कूल कैसे भेजेगी। घर में कुछ खाने-पीने को होगा तब तो बच्चा स्कूल जाएगा। देवली और रमचरणा की चिंता लेकर गांव वाले पहुंच गए मुखियाजी के दरबार में। सिंटू बाबू बोले- मुखियाजी, आपने ये क्या फरमान जारी कर दिया। गरीब का बच्चा कैसे स्कूल जा सकता है? वो स्कूल जाएगा तो उसे खाना कौन खिलाएगा?
मुखियाजी बोले, चिंता के कौनो बात नय छै। सभै इंतजाम सरकार करि दैल्हो छै। सब तोरा सब कै अपनो मन बनाय कैरो बात छै।
सिंटू बाबू पहले कुछ सोचने की मुद्रा में आए, फिर बोल पड़े- कि इंतजाम करलौ छै सरकार ने?
अब मुखियाजी, अंगिका से हिन्दी पर उतर आए। बोले- गरीबों में अपने बच्चों को स्कूल भेजने की मानसिकता तैयार करने के लिए सरकार की तरफ से आंगनबाड़ी कार्यक्रम चल रहा है। इसके तहत गरीबी रेखा के नीचे के छह महीने से तीन साल तक के पंचायत के करीब ढाई सौ बच्चों को (प्रति केंद्र 40 बच्चे, पंचायत में 6 केंद्र हैं) महीने में पूरक पोषाहार यानी सूखा राशन दिया जाएगा। यही नहीं, तीन से छह साल तक की उम्र के 40 बच्चों और तीन किशोरी बालिकाओं को महीने में पच्चीस दिन का पोषाहार यानी खाना दिया जाएगा। मुखियाजी ने बताना जारी रखा। कहा- इंतजाम सिर्फ बच्चों के लिए नहीं है। उनकी मांओं के लिए भी सरकार ने भंडार खोल दिया है। आठ गर्भवती और 8 शिशुवती यानी जिनके बच्चे हैं, उनके लिए भी आंगनबाड़ी योजना में पोषाहार का इंतजाम है। ये तो हुई पोषाहार की बात। आंगनबाड़ी योजना के तहत सरकारी डॉक्टर बच्चों और उनकी मांओं की सेहत का भी ध्यान रखेंगे। समय-समय पर इनके स्वास्थ्य की जांच की जाएगी ताकि पंचायत का कोई बच्चा कुपोषित ना रह जाए।
मुखियाजी बोलते जा रहे थे, गांव बोले टकटकी लगाए उनकी बातें सुनते जा रहे थे। आखिर में मुखियाजी बोले-बोल देवली अपनो बच्चा के स्कूल नया भैजवे। देवली बोली, सरकार जब एतना इंतजाम करलौ छै तो हमरो भी फर्ज बनै छै। हमरो बच्चा भी अब स्कूल जैते। लेकिन, एक बात तो हमरा सबकै नै बतैल्हो। आंगनबाड़ी केंद्र छै कहां? कहां मिलतै राशन-पानी?
मुखियाजी के बोलने के से पहले सिंटू बाबू ने कहना शुरू कर दिया। तो सब गांव में रहै छैं और एतना भी नै मालूम छौ। सुन- समेकित बाल विकास सेवा कार्यक्रम के तहत इस समय छतहार पंचायत में इस समय छह आंगनबाड़ी केंद्र हैं।
1. आंगनबाड़ी केंद्र छतहार दक्षिण टोला, सेविका- श्रीमती रुपम देवी, पिछड़ा क्षेत्र अनुदान निधि से पंचायत द्वारा 3.26 लाख की लागत से भवन का निर्माण.
2. आंगनबाड़ी केंद्र छतहार उत्तर रविदास टोला- वर्तमान में ये सामुदायिक चौपाल में चलता है, सेविका- श्रीमती रंजू देवी
3. आंगनबाड़ी केंद्र सहरोय गोयड़ा टोला अंबा रविदास टोला, सामुदायिक चौपाल में चलता है, सेविका-श्रीमती वीणावादिनी
4.आंगनबाड़ी केंद्र मालडा, सामुदायिक चौपाल में, सेविका- श्रीमती सिंधु देवी
5. आंगनबाड़ी केंद्र, टीना, सामुदायिक भवन में, सेविका-कुमारी गुड़िया
6. आंगनबाड़ी केंद्र, हरिवंशपुर, अपना भवन पिछड़ा क्षेत्र अनुदान निधि से पंचायत द्वारा 3.26 लाख रुपये की लागत से भवन, सेविका, श्रीमती सुप्रिया दास
चिंता वाजिब है। देवली अपने बच्चे को स्कूल कैसे भेजेगी। घर में कुछ खाने-पीने को होगा तब तो बच्चा स्कूल जाएगा। देवली और रमचरणा की चिंता लेकर गांव वाले पहुंच गए मुखियाजी के दरबार में। सिंटू बाबू बोले- मुखियाजी, आपने ये क्या फरमान जारी कर दिया। गरीब का बच्चा कैसे स्कूल जा सकता है? वो स्कूल जाएगा तो उसे खाना कौन खिलाएगा?
मुखियाजी बोले, चिंता के कौनो बात नय छै। सभै इंतजाम सरकार करि दैल्हो छै। सब तोरा सब कै अपनो मन बनाय कैरो बात छै।
सिंटू बाबू पहले कुछ सोचने की मुद्रा में आए, फिर बोल पड़े- कि इंतजाम करलौ छै सरकार ने?
अब मुखियाजी, अंगिका से हिन्दी पर उतर आए। बोले- गरीबों में अपने बच्चों को स्कूल भेजने की मानसिकता तैयार करने के लिए सरकार की तरफ से आंगनबाड़ी कार्यक्रम चल रहा है। इसके तहत गरीबी रेखा के नीचे के छह महीने से तीन साल तक के पंचायत के करीब ढाई सौ बच्चों को (प्रति केंद्र 40 बच्चे, पंचायत में 6 केंद्र हैं) महीने में पूरक पोषाहार यानी सूखा राशन दिया जाएगा। यही नहीं, तीन से छह साल तक की उम्र के 40 बच्चों और तीन किशोरी बालिकाओं को महीने में पच्चीस दिन का पोषाहार यानी खाना दिया जाएगा। मुखियाजी ने बताना जारी रखा। कहा- इंतजाम सिर्फ बच्चों के लिए नहीं है। उनकी मांओं के लिए भी सरकार ने भंडार खोल दिया है। आठ गर्भवती और 8 शिशुवती यानी जिनके बच्चे हैं, उनके लिए भी आंगनबाड़ी योजना में पोषाहार का इंतजाम है। ये तो हुई पोषाहार की बात। आंगनबाड़ी योजना के तहत सरकारी डॉक्टर बच्चों और उनकी मांओं की सेहत का भी ध्यान रखेंगे। समय-समय पर इनके स्वास्थ्य की जांच की जाएगी ताकि पंचायत का कोई बच्चा कुपोषित ना रह जाए।
मुखियाजी बोलते जा रहे थे, गांव बोले टकटकी लगाए उनकी बातें सुनते जा रहे थे। आखिर में मुखियाजी बोले-बोल देवली अपनो बच्चा के स्कूल नया भैजवे। देवली बोली, सरकार जब एतना इंतजाम करलौ छै तो हमरो भी फर्ज बनै छै। हमरो बच्चा भी अब स्कूल जैते। लेकिन, एक बात तो हमरा सबकै नै बतैल्हो। आंगनबाड़ी केंद्र छै कहां? कहां मिलतै राशन-पानी?
मुखियाजी के बोलने के से पहले सिंटू बाबू ने कहना शुरू कर दिया। तो सब गांव में रहै छैं और एतना भी नै मालूम छौ। सुन- समेकित बाल विकास सेवा कार्यक्रम के तहत इस समय छतहार पंचायत में इस समय छह आंगनबाड़ी केंद्र हैं।
1. आंगनबाड़ी केंद्र छतहार दक्षिण टोला, सेविका- श्रीमती रुपम देवी, पिछड़ा क्षेत्र अनुदान निधि से पंचायत द्वारा 3.26 लाख की लागत से भवन का निर्माण.
2. आंगनबाड़ी केंद्र छतहार उत्तर रविदास टोला- वर्तमान में ये सामुदायिक चौपाल में चलता है, सेविका- श्रीमती रंजू देवी
3. आंगनबाड़ी केंद्र सहरोय गोयड़ा टोला अंबा रविदास टोला, सामुदायिक चौपाल में चलता है, सेविका-श्रीमती वीणावादिनी
4.आंगनबाड़ी केंद्र मालडा, सामुदायिक चौपाल में, सेविका- श्रीमती सिंधु देवी
5. आंगनबाड़ी केंद्र, टीना, सामुदायिक भवन में, सेविका-कुमारी गुड़िया
6. आंगनबाड़ी केंद्र, हरिवंशपुर, अपना भवन पिछड़ा क्षेत्र अनुदान निधि से पंचायत द्वारा 3.26 लाख रुपये की लागत से भवन, सेविका, श्रीमती सुप्रिया दास
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